॥ *मीरा चरित* ॥
*पोस्ट - 1*
भारत के एक प्रांत राज्यस्थान का क्षेत्र है मारवाड़ -जो अपने वासियों की शूरता, उदारता, सरलता और भक्ति के लिये प्रसिद्ध रहा है ।मारवाड़ के शासक राव दूदा सिंह बड़े प्रतापी हुए ।उनके चौथे पुत्र रत्नसिंह जी और उनकी पत्नी वीर कुंवरी जी के यहां मीरा का जन्म संवत 1561 (1504 ई०) में हुआ ।
राव दूदा जी जैसे तलवार के धनी थे, वैसे ही वृद्धावस्था में उनमें भक्ति छलकी पड़ती थी ।पुष्कर आने वाले अधिकांश संत मेड़ता आमंत्रित होते और सम्पूर्ण राजपरिवार सत्संग -सागर में अवगाहन कर धन्य हो जाता ।
मीरा का लालन पालन दूदा जी की देख रेख में होने लगा ।मीरा की सौंदर्य सुषमा अनुपम थी ।मीरा के भक्ति संस्कारों को दूदा जी पोषण दे रहे थे ।वर्ष भर की मीरा ने कितने ही छोटे छोटे कीर्तन दूदा जी से सीख लिए थे ।किसी भी संत के पधारने पर मीरा दूदा जी की प्रेरणा से उन्हें अपनी तोतली भाषा में भजन सुनाती और उनका आशीर्वाद पाती ।अपने बाबोसा की गोद में बैठकर शांत मन से संतो से कथा वार्ता सुनती ।
दूदा जी की भक्ति की छत्रछाया में धीरे धीरे मीरा पाँच वर्ष की हुई ।एक बार ऐसे ही मीरा राजमहल में ठहरे एक संत के समीप प्रातःकाल जा पहुँची ।वे उस समय अपने ठाकुर जी की पूजा कर रहे थे ।मीरा प्रणाम कर पास ही बैठ गई और उसने जिज्ञासा वश कितने ही प्रश्न पूछ डाले-यह छोटे से ठाकुर जी कौन है? ; आप इनकी कैसे पूजा करते है? संत भी मीरा के प्रश्नों का एक एक कर उत्तर देते गये ।फिर मीरा बोली ," यदि यह मूर्ति आप मुझे दे दें तो मैं भी इनकी पूजा किया करूँगी ।" संत बोले ,"नहीं बेटी ! अपने भगवान किसी को नहीं देने चाहिए ।वे हमारी साधना के साध्य है ।
मीरा की आँखें भर आई ।निराशा से निश्वास छोड़ उसने ठाकुर जी की तरफ़ देखा और मन ही मन कहा-" यदि तुम स्वयं ही न आ जाओ तो मैं तुम्हें कहाँ से पाऊँ?" और मीरा भरे मन से उस मूर्ति के बारे में सोचती अपने महल की ओर बढ़ गई....
*क्रमश......भाग - 2*
*॥मीरा चरित ॥*
*पोस्ट - 2*
दूसरे दिन प्रातःकाल मीरा उन संत के निवास पर ठाकुर जी के दर्शन हेतु जा पहुँची ।मीरा प्रणाम करके एक तरफ बैठ गई ।
संत ने पूजा समापन कर मीरा को प्रसाद देते हुए कहा," बेटी , तुम ठाकुर जी को पाना चाहती हो न!"
मीरा: बाबा, किन्तु यह तो आपकी साधना के साध्य है (मीरा ने कांपते स्वर में कहा) ।
बाबा : अब ये तुम्हारे पास रहना चाहते है- तुम्हारी साधना के साध्य बनकर , ऐसा मुझे इन्होने कल रात स्वप्न में कहा कि अब मुझे मीरा को दे दो ।( कहते कहते बाबा के नेत्र भर आये) ।इनके सामने किसकी चले ?
मीरा: क्या सच? ( आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से बोली जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ ।)
बाबा: (भरे कण्ठ से बोले ) हाँ ।पूजा तो तुमने देख ही ली है ।पूजा भी क्या - अपनी ही तरह नहलाना- धुलाना, वस्त्र पहनाना और श्रंगार करना , खिलाना -पिलाना ।केवल आरती और धूप विशेष है ।
मीरा: किन्तु वे मन्त्र , जो आप बोलते है, वे तो मुझे नहीं आते ।
बाबा :मन्त्रों की आवश्यकता नहीं है बेटी। ये मन्त्रो के वश में नहीं रहते। ये तो मन की भाषा समझते है। इन्हें वश में करने का एक ही उपाय है कि इनके सम्मुख ह्रदय खोलकर रखदो। कोई छिपाव या दिखावा नहीं करना। ये धातु के दिखते है पर है नहीं। इन्हें अपने जैसा ही मानना।
मीरा ने संत के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और जन्म जन्म के भूखे की भाँति अंजलि फैला दी ।संत ने अपने प्राणधन ठाकुर जी को मीरा को देते हुए उसके सिर पर हाथ रखकर गदगद कण्ठ से आशीर्वाद दिया -"भक्ति महारानी अपने पुत्र ज्ञान और वैराग्य सहित तुम्हारे ह्रदय में निवास करें, प्रभु सदा तुम्हारे सानुकूल रहें ।"
मीरा ठाकुर जी को दोनों हाथों से छाती से लगाये उन पर छत्र की भांति थोड़ी झुक गई और प्रसन्नता से डगमगाते पदों से वह अन्तःपुर की ओर चली............
*क्रमशः ........भाग - 3*
*॥ मीरा चरित ॥*
*पोस्ट - 3*
कृपण के धन की भाँति मीरा ठाकुर जी को अपने से चिपकाये माँ के कक्ष में आ गई ।वहाँ एक झरोखे में लकड़ी की चौकी रख उस पर अपनी नई ओढ़नी बिछा ठाकुर जी को विराजमान कर दिया ।थोड़ी दूर बैठ उन्हें निहारने लगी ।रह रह कर आँखों से आँसू झरने लगे ।
आज की इस उपलब्धि के आगे सारा जगत तुच्छ हो गया ।जो अब तक अपने थे वे सब पराये हो गये और आज आया हुआ यह मुस्कुराता हुआ चेहरा ऐसा अपना हुआ जैसा अब तक कोई न था ।सारी हंसी खुशी और खेल तमाशे सब कुछ इन पर न्यौछावर हो गया ।ह्रदय में मानों उत्साह उफन पड़ा कि ऐसा क्या करूँ, जिससे यह प्रसन्न हो ।
अहा, कैसे देख रहा है मेरी ओर ? अरे मुझसे भूल हो गई ।तुम तो भगवान हो और मैं आपसे तू तुम कर बात कर गई ।आप कितने अच्छे हैं जो स्वयं कृपा कर उस संत से मेरे पास चले आये ।मुझसे कोई भूल हो जाये तो आप रूठना नहीं , बस बता देना ।अच्छा बताओ उन महात्मा की याद तो नहीं आ रही -वह तो तुम्हें मुझे देते रो ही पड़े थे ।मैं तुम्हें अच्छे से रखूँगी- स्नान करवाऊँगी, सुलाऊँगी और ऐसे सजाऊँगी कि सब देखते ही रह जायेंगे ।मैं बाबोसा को कह कर तुम्हारे लिए सुंदर पलंग, तकिये, गद्दी ,और बढ़िया वागे (पोशाक) भी बनवा दूँगी । फिर कभी मैं तुम्हें फुलवारी में और कभी यहाँ के मन्दिर चारभुजानाथ के दर्शन को ले चलूँगी ।वे तो सदा ऐसे सजे रहते है जैसे अभीअभी बींद (दूल्हा ) बने हो ।
मीरा ने अपने बाल सरल ह्रदय से कितनी ही बातें ठाकुर जी का दिल लगाने के लिए कर डाली ।न तो उसे कुछ खाने की सुध थीं और न किसी और काम में मन लगता था ।माँ ने ठाकुर जी को देखा तो बोली ,"क्या अपने ठाकुर जी को भी भूखा रखेगी? चल उठ भोग लगा और फिर तू भी प्रसाद पा ।"
मीरा: अरे हाँ, यह बात तो मैं भूल ही गई ।फिर उसने भोग की सब व्यवस्था की।
दूदा जी का हाथ पकड़ उन्हें अपने ठाकुर जी के दर्शन के लिए लाते मीरा ने उन्हें सब बताया ।
मीरा: बाबोसा उन्होंने स्वयं मुझे ठाकुर जी दिए और कहा कि स्वप्न में ठाकुर जी ने कहा कि अब मैं मीरा के पास ही रहूँगा ।
दूदाजी ने दर्शन कर प्रणाम किया तो बोले ," भगवान को लकड़ी की चौकी पर क्यों ? मैं आज ही चाँदी का सिंहासन मंगवा दूंगा ।"
मीरा: हाँ बाबोसा ।और मखमल की गादी तकिये, चाँदी के बर्तन ,वागे और चन्दन का हिंडोला भी ।
दूदाजी : अवश्य बेटा ।सब सांझ तक आ जायेगा ।
मीरा: पर बाबोसा , मैं उन महात्मा से ठाकुर जी का नाम पूछना भूल गई ।
दूदाजी :मनुष्य के तो एक नाम होता है ।पर भगवान के जैसे गुण अनन्त है वैसे उनके नाम भी । तुम्हें जो नाम प्रिय लगे , चुन ले ।
मीरा: हाँ आप नाम लीजिए ।
ठीक है ।कृष्ण , गोविंद , गोपाल , माधव, केशव, मनमोहन , गिरधर.............
बस, बस बाबोसा ।मीरा उतावली हो बोली-यह गिरधर नाम सबसे अच्छा है ।इस नाम का अर्थ क्या है?
दूदाजी ने अत्यंत स्नेह से ठाकुर जी की गिरिराज धारण करने की लीला सुनाई ।बस तभी से इनका नाम हुआ गिरधर ....... ।
मीरा भाव विभोर हो मूर्छित हो गई।
*क्रमशः ...........भाग - 4*
*॥ मीरा चरित ॥*
*पोस्ट -4*
महल के परकोटे में लगी फुलवारी के मध्य गिरधर गोपाल के लिए मन्दिर बन कर दो महीनों में तैयार हो गया । धूमधाम से गिरधर गोपाल का गृह प्रवेश और विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा हुईं । मन्दिर का नाम रखा गया "श्याम कुन्ज"। अब मीरा का अधिकतर समय श्याम कुन्ज में ही बीतने लगा ।
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ऐसे ही धीरेधीरे समय बीतने लगा ।मीरा पूजा करने के पश्चात् भी श्याम कुन्ज में ही बैठे बैठे.......... सुनी और पढ़ी हुई लीलाओं के चिन्तन में प्रायः खो जाती ।
वर्षा के दिन थे ।चारों ओर हरितिमा छायी हुई थीं ।ऊपर गगन में मेघ उमड़ घुमड़ कर आ रहे थे ।आँखें मूँदे हुये मीरा गिरधर के सम्मुख बैठी है । बंद नयनों के समक्ष उमड़ती हुई यमुना के तट पर मीरा हाथ से भरी हुई मटकी को थामें बैठी है । यमुना के जल में श्याम सुंदर की परछाई देख वह पलक झपकाना भूल गई ।यह रूप -ये कारे कजरारे दीर्घ नेत्र .......... । मटकी हाथ से छूट गई और उसके साथ न जाने वह भी कैसे जल में जा गिरी । उसे लगा कोई जल में कूद गया और फिर दो सशक्त भुजाओं ने उसे ऊपर उठा लिया और घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुस्कुरा दिया । वह यह निर्णय नहीं कर पाई कि कौन अधिक मारक है - दृष्टि याँ मुस्कान ? निर्णय कैसे हो भी कैसे ? बुद्धि तो लोप हो गई, लज्जा ने देह को जड़ कर दिया और मन -? मन तो बैरी बन उनकी आँखों में जा समाया था ।
उसे शिला के सहारे घाट पर बिठाकर वह मुस्कुराते हुए जल से उसका घड़ा निकाल लाये । हंसते हुये अपनत्व से कितने ही प्रश्न पूछ डाले उन्होंने ब्रज भाषा में ।
अमृत सी वाणी वातावरण में रस सी घोलती प्रतीत हुईं ।
"थोड़ा विश्राम कर ले, फिर मैं तेरो घड़ो उठवाय दूँगो । कहा नाम है री तेरो ? बोलेगी नाय ? मो पै रूठी है क्या ? भूख लगी है का ? तेरी मैया ने कछु खवायो नाय ? ले , मो पै फल है ।खावेगी ?"
उन्होंने फट से बड़ा सा अमरूद और थोड़े जामुन निकाल कर मेरे हाथ पर धर दिये - "ले खा ।"
मैं क्या कहती , आँखों से दो आँसू ढुलक पड़े । लज्जा ने जैसे वाणी को बाँध लिया था ।
" कहा नाम है तेरो ?"
"मी............रा" बहुत खींच कर बस इतना ही कह पाई ।
वे खिलखिला कर हँस पड़े ।" कितना मधुर स्वर है तेरो री ।"
"श्याम सुंदर ! कहाँ गये प्राणाधार ! " वह एकाएक चीख उठी ।समीप ही फुलवारी से चम्पा और चमेली दौड़ी आई और देखा मीरा अतिशय व्याकुल थीं और आँखों से आँसू झर रहे थे ।दोनों ने मिल कर शैय्या बिछाई और उस पर मीरा को यत्न से सुला दिया ।
सांयकाल तक जाकर मीरा की स्थिति कुछ सुधरी तो वह तानपुरा ले गिरधर के सामने जा बैठी ।फिर ह्रदय के उदगार प्रथम बार पद के रूप में प्रसरित हो उठे ............
मेहा बरसबों करे रे ,
आज तो रमैया म्हाँरे घरे रे ।
नान्हीं नान्हीं बूंद मेघघन बरसे,
सूखा सरवर भरे रे ॥
घणा दिनाँ सूँ प्रीतम पायो,
बिछुड़न को मोहि डर रे ।
मीरा कहे अति नेह जुड़ाओ,
मैं लियो पुरबलो वर रे ॥
पद पूरा हुआ तो मीरा का ह्रदय भी जैसे कुछ हल्का हो गया । पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है वैसे ही मीरा की भाव सरिता भी शब्दों में ढलकर पदों के रूप में उद्धाम बह निकली ।
*क्रमशः ............5*
*।। मीरा चरित ।।*
*पोस्ट - 5*
मीरा अभी भी तानपुरा ले गिरधर के सम्मुख श्याम कुन्ज में ही बैठी थी । वह दीर्घ कज़रारे नेत्र , वह मुस्कान , उनके विग्रह की मदमाती सुगन्ध और वह रसमय वाणी सब मीरा के स्मृति पटल पर बार बार उजागर हो रही थी ।
मेरे नयना निपट बंक छवि अटके ।
देखत रूप मदनमोहन को
पियत पीयूख न भटके ।
बारिज भवाँ अलक टेढ़ी मनो अति सुगन्ध रस अटके॥
टेढ़ी कटि टेढ़ी कर मुरली टेढ़ी पाग लर लटके ।
मीरा प्रभु के रूप लुभानी गिरधर नागर नटके ॥
मीरा को प्रसन्न देखकर मिथुला समीप आई और घुटनों के बल बैठकर धीमे स्वर में बोली - " जीमण पधराऊँ बाईसा ( भोजन लाऊँ )? "
" अहा मिथुला ! अभी थोड़ा ठहर जा "। मीरा के ह्रदय पर वही छवि बार बार उबर आती थी । फिर उसकी उंगलियों के स्पर्श से तानपुरे के तार झंकृत हो उठे.........
नन्दनन्दन दिठ (दिख) पड़िया माई,
साँ.......वरो........ साँ......वरो ।
नन्दनन्दन दिठ पड़िया माई ,
छाड़या सब लोक लाज ,
साँ......वरो ......... साँ......वरो
मोरचन्द्र का किरीट, मुकुट जब सुहाई ।
केसररो तिलक भाल, लोचन सुखदाई ।
साँ......वरो .....साँ....वरो ।
कुण्डल झलकाँ कपोल, अलका लहराई,
मीरा तज सरवर जोऊ,मकर मिलन धाई ।
साँ......वरो ....... साँ......वरो ।
नटवर प्रभु वेश धरिया, रूप जग लुभाई,
गिरधर प्रभु अंग अंग ,मीरा बलि जाई ।
साँ......वरो ....... साँ......वरो ।
" अरी मिथुला ,थोड़ा ठहर जा ।अभी प्रभु को रिझा लेने दे । कौन जाने ये परम स्वतंत्र हैं .....कब भाग निकले ? आज प्रभु आयें हैं तो यहीं क्यों न रख लें ?"
मीरा जैसे धन्यातिधन्य हो उठी ।लीला चिन्तन के द्वार खुल गये और अनुभव की अभिव्यक्ति के भी । दिन पर दिन उसके भजन पूजन का चाव बढ़ने लगा । वह नाना भाँति से गिरधर का श्रृगांर करती कभी फूलों से और कभी मोतियों से । सुंदर पोशाकें बना धारण कराती । भाँति भाँति के भोग बना कर ठाकुर को अर्पण करती और पद गा कर नृत्य कर उन्हें रिझाती । शीत काल में उठ उठ कर उन्हें ओढ़ाती और गर्मियों में रात को जागकर पंखा झलती । तीसरे -चौथे दिन ही कोई न कोई उत्सव होता ।
*क्रमशः ........6*
*।। मीरा चरित ।।*
*पोस्ट - 6*
मीरा की भक्ति और भजन में बढ़ती रूचि देखकर रनिवास में चिन्ता व्याप्त होने लगी । एक दिन वीरमदेव जी (मीरा के सबसे बड़े काका ) को उनकी पत्नी श्री गिरिजा जी ने कहा ," मीरा दस वर्ष की हो गई है ,इसकी सगाई - सम्बन्ध की चिन्ता नहीं करते आप ? "
वीरमदेव जी बोले ," चिन्ता तो होती है पर मीरा का व्यक्तित्व , प्रतिभा और रूचि असधारण है--फिर बाबोसा मीरा के ब्याह के बारे में कैसा सोचते है--पूछना पड़ेगा ।"
" ,बेटी की रूचि साधारण हो याँ असधारण - पर विवाह तो करना ही पड़ेगा " बड़ी माँ ने कहा ।
" पर मीरा के योग्य कोई पात्र ध्यान में हो तो ही मैं अन्नदाता हुक्म से बात करूँ ।"
" एक पात्र तो मेरे ध्यान में है ।मेवाड़ के महाराज कुँवर और मेरे भतीजे भोजराज ।"
"क्या कहती हो , हँसी तो नहीं कर रही ? अगर ऐसा हो जाये तो हमारी बेटी के भाग्य खुल जाये ।वैसे मीरा है भी उसी घर के योग्य ।" प्रसन्न हो वीरमदेव जी ने कहा ।
गिरिजा जी ने अपनी तरफ़ से पूर्ण प्रयत्न करने का आश्वासन दिया ।
मीरा की सगाई की बात मेवाड़ के महाराज कुंवर से होने की चर्चा रनिवास में चलने लगी । मीरा ने भी सुना । वह पत्थर की मूर्ति की तरह स्थिर हो गई थोड़ी देर तक । वह सोचने लगी -माँ ने ही बताया था कि तेरा वर गिरधर गोपाल है-और अब माँ ही मेवाड़ के राजकुमार के नाम से इतनी प्रसन्न है , तब किससे पूछुँ ? " वह धीमे कदमों से दूदाजी के महल की ओर चल पड़ी ।
पलंग पर बैठे दूदाजी जप कर रहे थे ।मीरा को यूँ अप्रसन्न सा देख बोले ," क्या बात है बेटा ?"
" बाबोसा ! एक बेटी के कितने बींद होते है ?"
दूदाजी ने स्नेह से मीरा के सिर पर हाथ रखा और हँस कर बोले ," क्यों पूछती हो बेटी ! वैसे एक बेटी के एक ही बींद होता है ।एक बींद के बहुत सी बीनणियाँ तो हो सकती है पर किसी भी तरह एक कन्या के एक से अधिक वर नहीं होते ।पर क्यों ऐसा पूछ रही हो ?"
" बाबोसा ! एक दिन मैंने बारात देख माँ से पूछा था कि मेरा बींद कौन है ? उन्होंने कहा कि तेरा बींद गिरधर गोपाल है । और आज...... आज...... ।" उसने हिलकियों के साथ रोते हुए अपनी बात पूरी करते हुये कहा"-" आज भीतर सब मुझे मेवाड़ के राजकुवंर को ब्याहने की बात कर रहे है ।"
दूदाजी ने अपनी लाडली को चुप कराते हुए कहा-" तूने भाबू से पूछा नहीं ? "
" पूछा ! तो वह कहती है कि-" वह तो तुझे बहलाने के लिए कहा था । पीतल की मूरत भी कभी किसी का पति होती है ? अरी बड़ी माँ के पैर पूज । यदि मेवाड़ की राजरानी बन गई तो भाग्य खुल गया समझ । आप ही बताईये बाबोसा ! मेरे गिरधर क्या केवल पीतल की मूरत है ? संत ने कहा था न कि यह विग्रह (मूर्ति) भगवान की प्रतीक है । प्रतीक वैसे ही तो नहीं बन जाता ? कोई हो , तो ही उसका प्रतीक बनाया जा सकता है ।जैसे आपका चित्र कागज़ भले हो , पर उसे कोई भी देखते ही कह देगा कि यह दूदाजी राठौड़ है । आप है , तभी तो आपका चित्र बना है ।यदि गिरधर नहीं है तो फिर उनका प्रतीक कैसा ?"
" भाबू कहती है-"भगवान को किसने देखा है ? कहाँ है ? कैसे है ? मैं कहती हूँ बाबोसा वो कहीं भी हों , कैसे भी हो , पर हैं , तभी तो मूरत बनी है , चित्र बनते है ।ये शास्त्र , ये संत सब झूठे है क्या ? इतनी बड़ी उम्र में आप क्यों राज्य का भार बड़े कुंवरसा पर छोड़कर माला फेरते है ? क्यों मन्दिर पधारते है ? क्यों सत्संग करते है ? क्यों लोग अपने प्रियजनों को छोड़ कर उनको पाने के लिए साधु हो जाते है ? बताईये न बाबोसा -" मीरा ने रोते रोते कहा ।
*क्रमशः ........7*
*॥ मीरा चरित ॥*
*पोस्ट - 7*
राव दूदाजी अपनी दस वर्ष की पौत्री मीरा की बातें सुनकर चकित रह गये ।कुछ क्षण तो उनसे कुछ बोला नहीं गया ।
"आप कुछ तो कहिये बाबोसा ! मेरा जी घबराता है ।किससे पूछुँ यह सब ? भाबू ने पहले मुझे क्यों कहा कि गिरधर ही मेरे वर है और अब स्वयं ही अपने कहे पर पानी फेर रही है ? जो हो ही नहीं सकता , उसका क्या उपाय ? आप ही बताईये -क्या तीनों लोको के धणी (स्वामी) से भी बड़ा मेवाड़ का राजकुमार है ? और यदि है तो होने दो , मुझे नहीं चाहिए ।"
"तू रो मत बेटा ! धैर्य धर !उन्होने दुपट्टे के छोर से मीरा का मुँह पौंछा -तू चिन्ता मत कर ।मैं सबको कह दूँगा कि मेरे जीते जी मीरा का विवाह नहीं होगा ।तेरे वर गिरधर गोपाल हैं और वही रहेंगे , किन्तु मेरी लाड़ली ! मैं बूढ़ा हूँ । कै दिन का मेहमान ? मेरे मरने के पश्चात यदि ये लोग तेरा ब्याह कर दें तो तू घबराना मत । सच्चा पति तो मन का ही होता है । तन का पति भले कोई बने , मन का पति ही पति है । गिरधर तो प्राणी मात्र का धणी है , अन्तर्यामी है उनसे तेरे मन की बात छिपी तो नहीं है बेटा ।तू निश्चिंत रह ।
"
"सच फरमा रहे है , बाबोसा ?"
" सर्व साँची बेटा ।"
" तो फिर मुझे तन का पति नहीं चाहिए ।मन का पति ही पर्याप्त है ।"दूदाजी से आश्वासन पाकर मीरा के मन को राहत मिली ।
दूदाजी के महल से मीरा सीधे श्याम कुन्ज की ओर चली ।कुछ क्षण अपने प्राणाराध्य गिरधर गोपाल की ओर एकटक देखती रही ।फिर तानपुरा झंकृत होने लगा ।आलाप लेकर वह गाने लगी .........
आओ मनमोहना जी, जोऊँ थाँरी बाट ।
खान पान मोहि नेक न भावे,नैणन लगे कपाट॥
तुम आयाँ बिन सुख नहीं मेरेेेे,दिल में बहुत उचाट ।
मीरा कहे मैं भई रावरी, छाँड़ो नाहिं निराट॥
भजन पूरा हुआ तो अधीरतापूर्वक नीचे झुक कर दोनों भुजाओं में सिंहासन सहित अपने ह्रदयधन को बाँध चरणों में सिर टेक दिया ।नेत्रों से झरते आँसू उनका अभिषेक करने लगे । ह्रदय पुकार रहा था-"आओ सर्वस्व ! इस तुच्छ दासी की आतुर प्रतीक्षा सफल कर दो ।आज तुम्हारी साख और प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है । "
उसे फूट फूट कर रोते देख मिथुला ने धीरज धराया ।कहा कि," प्रभु तो अन्तर्यामी है , आपकी व्यथा इनसे छिपी नहीं है ।"
" मिथुला ,तुम्हें लगता है वे मेरी सुध लेंगे ? वे तो बहुत बड़े ......है ।मेरी क्या गिनती ? मुझ जैसे करोड़ों जन बिलबिलाते रहते है । किन्तु मिथुला ! मेरे तो केवल वही एक अवलम्ब है ।न सुने, न आयें , तब भी मेरा क्या वश है ?" मीरा ने मिथुला की गोद में मुँह छिपा लिया ।
" पर आप क्यों भूल जाती है बाईसा कि वे भक्तवत्सल है , करूणासागर है , दीनबन्धु है ।भक्त की पीड़ा वे नहीं सह पाते -दौड़े आते है ।"
" किन्तु मैं भक्त कहाँ हूँ मिथुला ? मुझसे भजन बनता ही कहाँ है ? मुझे तो केवल वह अच्छे लगते है ।वे मेरे पति हैं -मैं उनकी हूँ ।वे क्या कभी अपनी इस दासी को अपनायेगें ? उनके तो सोलह हज़ार एक सौ आठ पत्नियाँ है उनके बीच मेरी प्रेम हीन रूखी सूखी पुकार सुन पायेंगे क्या ? तुझे क्या लगता है मिथुला ! वे कभी मेरी ओर देखेंगे भी क्या ?"
मीरा अचेत हो मिथुला की गोद में लुढ़क गई ।"
*क्रमशः ........8*
*॥मीरा चरीत॥*
*पोस्ट - 8*
मआज श्री कृष्ण जन्माष्टमी है ।राजमन्दिर में और श्याम कुन्ज में प्रातःकाल से ही उत्सव की तैयारियाँ होने लगी ।मीरा का मन विकल है पर कहीं आश्वासन भी है कि प्रभु आज अवश्य पधारेगें ।बाहर गये हुये लोग , भले ही नौकरी पर गये हो , सभी पुरुष तीज तक घर लौट आते हैं ।फिर आज तो उनका जन्मदिन है । कैसे न आयेंगे भला ? पति के आने पर स्त्रियाँ कितना श्रृगांर करती है -तो मैं क्या ऐसे ही रहूँगी ? तब...... मैं भी क्यों न पहले से ही श्रृगांर धारण कर लूँ ? कौन जाने , कब पधार जावें वे !"
मीरा ने मंगला से कहा ," जा मेरे लिए उबटन ,सुगंध और श्रृगांर की सब सामग्री ले आ ।" और चम्पा से बोली कि माँ से जाकर सबसे सुंदर काम वाली पोशाक और आभूषण ले आये ।
सभी को प्रसन्नता हुईं कि मीरा आज श्रृगांर कर रही है । बाबा बिहारी दास जी की इच्छा थी कि आज रात मीरा चारभुजानाथ के यहाँ होने वाले भजन कीर्तन में उनका साथ दें । बाबा की इच्छा जान मीरा असमंजस में पड़ गई ।थोड़े सोचने के बाद बोली -" बाबा रात्रि के प्रथम प्रहर में राजमन्दिर में रह आपकी आज्ञा का पालन करूँगी और फिर अगर आप आज्ञा दें तो मैं जन्म के समय श्याम कुन्ज में आ जाऊँ ?"
"अवश्य बेटी !" उस समय तो तुम्हें श्याम कुन्ज में ही होना चाहिए "बाबा ने मीरा के मन के भावों को समझते हुये कहा ।" मेरी तो यह इच्छा थी कि तुम मेरे साथ एक बार मन्दिर में गाओ । बड़ी होने पर तो तुम महलों में बंद हो जाओगी ।कौन जाने , ऐसा सुयोग फिर कब मिले !"
मीरा आज नख से शिख तक श्रंगार किये मीरा चारभुजानाथ के मन्दिर में राव दूदाजी और बाबा बिहारी दास जी के बीच तानपुरा लेकर बैठी हुई पदगायन में बाबा का साथ दे रही है ।मीरा के रूप सौंदर्य के अतुलनीय भण्डार के द्वार आज श्रृगांर ने उदघाटित कर दिए थे । नवबालवधु के रूप में मीरा को देख कर सभी राजपुरूष के मन में यह विचार स्फुरित होने लगा कि मीरा किसी बहुत गरिमामय घर -वर के योग्य है । वीरमदेव जी भी आज अपनी बेटी का रूप देख चकित रह गये और मन ही मन दृढ़ निश्चय किया कि चित्तौड़ की महारानी का पद ही मीरा के लिए उचित स्थान है ।
" बेटी ! अब तुम अपने संगीत के द्वारा सेवा करो ।" बाबा बिहारी दास जी ने गर्व से अपनी योग्य शिष्या को कहा ।
मीरा ने उठकर पहले गुरुचरणों में प्रणाम किया ।फिर चारभुजानाथ और दूदाजी आदि बड़ो को प्रणाम कर गायन प्रारम्भ किया ।आलाप की तान ले मीरा ने सम्पूर्ण वातावरण को बाँध दिया........
बसो मेरे नैनन में नन्दलाल ।
मोहिनी मूरत साँवरी सूरत, नैना बने विशाल ।
अधर सुधारस मुरली राजत उर वैजंती माल॥
छुद्र घंटिका कटितट शोभित नूपुर सबद रसाल ।
मीरा प्रभु संतन सुखदायी, भगत बछल गोपाल ॥
वहाँ उपस्थित सब भक्त जन मीरा के गायन से मन्त्रमुग्ध हो गये । बिहारी दास जी सहित दूदाजी मीरा का वह स्वरचित पद श्रवण कर चकित एवं प्रसन्न हो उठे । दोनों आनन्दित हो गदगद स्वर में बोले -" वाह बेटी !
मीरा ने संकोच वश अपने नेत्र झुका लिये ।बाबा ने उमंग से मीरा से एक और भजन गाने का आग्रह किया तो उसने फिर से तानपुरा उठाया ।अबकि मीरा ने ठाकुर जी की करूणा का बखान करते हुये पद गाया ।
सुण लीजो बिनती मोरी
मैं सरण गही प्रभु तोरी ।
तुम तो पतित अनेक उधारे
भवसागर से तारे ।
.................................
................................
मीरा प्रभु तुम्हरे रंग राती
या जानत सब दुनियाई ॥
दूदाजी नेत्र मूंद कर एकाग्र होकर श्रवण कर रहे थे ।भजन पूरा होने पर उन्होंने आँखें खोली, प्रशंसा भरी दृष्टि से मीरा की ओर देखा और बोले ," आज मेरा जीवन धन्य हो गया । बेटा , तूने अपने वंश -अपने पिता पितृव्यों को धन्य कर दिया ।" फिर मीरा के सिर पर हाथ रखते हुए अपने वीर पुत्रों को देखते हुये अश्रु विगलित स्वर से बोले ," इनकी प्रचण्ड वीरता और देश प्रेम को कदाचित लोग भूल जायें, पर मीरा तेरी भक्ति और तेरा नाम अमर रहेगा बेटा ......अमर रहेगा ।उनकी आँखें
छलक पड़ी ।
*क्रमश ......9*
*॥ मीरा चरित ॥*
*पोस्ट - 9*
मीरा यूँ तों श्याम कुन्ज में अपने गिरधर को रिझाने के लिये प्रतिदिन ही गाती थी -पर आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन राजमन्दिर में सार्वजनिक रूप से उसने पहली बार ही गायन किया ।सब घर परिवार और बाहर के मीरा की असधारण भक्ति एवं संगीत प्रतिभा देख आश्चर्य चकित हो गये ।
अतिशय भावुक हुये दूदाजी को प्रणाम करते हुए मीरा बोली ," बाबोसा मैं तो आपकी हूँ , जो कुछ है वह तो आपका ही है और रहा संगीत , यह तो बाबा का प्रसाद है ।" मीरा ने बाबा बिहारी दास की ओर देखकर हाथ जोड़े ।
थोड़ा रूक कर वह बोली -" अब मैं जाऊँ बाबा ?"
"जाओ बेटी ! श्री किशोरी जी तुम्हारा मनोरथ सफल करें ।" भरे कण्ठ से बाबा ने आशीर्वाद दिया ।
सभी को प्रणाम कर मीरा अपनी सखियों -दासियों के साथ श्याम कुन्ज चल दी । बाबा बिहारी दास जी का आशीर्वाद पाकर वह बहुत प्रसन्न थी , फिर भी रह रह कर उसका मन आशंकित हो उठता था- " कौन जाने , प्रभु इस दासी को भूल तो न गये होंगे ? किन्तु नहीं , वे विश्वम्बर है , उनको सबकी खबर है , पहचान है ।आज अवश्य पधारेगें अपनी इस चरणाश्रिता को अपनाने । इसकी बाँह पकड़ कर भवसागर में डूबती हुई को ऊपर उठाकर ............ ।" आगे की कल्पना कर वह आनन्दानुभूति में खो जाती ।
सखियों -दासियों के सहयोग से मीरा ने आज श्याम कुन्ज को फूल मालाओं की बन्दनवार से अत्यंत सजा दिया था । अपने गिरधर गोपाल का बहुत आकर्षक श्रंगार किया । सब कार्य सुंदर रीति से कर मीरा ने तानपुरा उठाया ।
आय मिलो मोहिं प्रीतम प्यारे ।
हमको छाँड़ भये क्यूँ न्यारे ॥
बहुत दिनों से बाट निहारूँ ।
तेरे ऊपर तन मन वारूँ ॥
तुम दरसन की मो मन माहीं ।
आय मिलो किरपा कर साई ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ।
आय दरस द्यो सुख के सागर ॥
मीरा की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई ।रोते रोते मीरा फिर गाने लगी ।चम्पा ने मृदंग और मिथुला ने मंजीरे संभाल लिए .......
जोहने गुपाल करूँ ऐसी आवत मन में ।
अवलोकत बारिज वदन बिबस भई तन में ॥
मुरली कर लकुट लेऊँ पीत वसन धारूँ ।
पंखी गोप भेष मुकुट गोधन सँग चारूँ ॥
हम भई गुल काम लता वृन्दावन रैना ।
पसु पंछी मरकट मुनि श्रवण सुनत बैना ॥
गुरूजन कठिन कानिं कासों री कहिये ।
मीरा प्रभु गिरधर मिली ऐसे ही रहिये ॥
गान विश्रमित हुआ तो मीरा की निमीलित पलकों तले लीला - सृष्टि विस्तार पाने लगी- वह गोप सखा के वेश में आँखों पर पट्टी बाँधे श्याम सुंदर को ढूँढ रही है । उसके हाथ में ठाकुर को ढूँढते ढूँढते कभी तो वृक्ष का तना , कभी झाड़ी के पत्ते और कभी गाय का मुख आ जाता है । वह थक गयी ,व्याकुल हो पुकार उठी -" कहाँ हो "गोविन्द ! आह , मैं ढूँढ नहीं पा रही हूँ । श्याम सुन्दर ! कहाँ हो..........कहाँ हो.......कहाँ हो.....? "
*क्रमशः .......10*
*।। मीरा चरित ।।*
*पोस्ट - 10*
श्री कृष्ण जन्माष्टमी का समय है । मीरा श्याम कुन्ज में ठाकुर के आने की प्रतीक्षा में गायन कर रही है ।उसे लीला अनुभूति हुई कि वह गोप सखा वेश में आँखों पर पट्टी बाँधे श्यामसुन्दर को ढूँढ रही है ।
तभी गढ़ पर से तोप छूटी ।चारभुजानाथ के मन्दिर के नगारे , शंख , शहनाई एक साथ बज उठे ।समवेत स्वरों में उठती जय ध्वनि ने दिशाओं को गुँजा दिया - " चारभुजानाथ की जय ! गिरिधरण लाल की जय ।"
उसी समय मीरा ने देखा - जैसे सूर्य -चन्द्र भूमि पर उतर आये हो , उस महाप्रकाश के मध्य शांत स्निग्ध ज्योति स्वरूप मोर मुकुट पीताम्बर धारण किए सौन्दर्य -सुषमा- सागर श्यामसुन्दर खड़े मुस्कुरा रहे हैं ।वे आकर्ण दीर्घ दृग ,उनकी वह ह्रदय को मथ देने वाली दृष्टि , वे कोमल अरूण अधर -पल्लव , बीच में तनिक उठी हुई सुघड़ नासिका , वह स्पृहा -केन्द्र विशाल वक्ष , पीन प्रलम्ब भुजायें ,कर-पल्लव , बिजली सा कौंधता पीताम्बर और नूपुर मण्डित चारू चरण ।एक दृष्टि में जो देखा जा सका....... फिर तो दृष्टि तीखी धार -कटार से उन नेत्रों में उलझ कर रह गई ।क्या हुआ ? क्या देखा ? कितना समय लगा ? कौन जाने ?समय तो बेचारा प्रभु और उनके प्रेमियों के मिलन के समय प्राण लेकर भाग छूटता है ।
"इतनी व्याकुलता क्यों , क्या मैं तुमसे कहीं दूर था ?" श्यामसुन्दर ने स्नेहासिक्त स्वर में पूछा ।
मीरा प्रातःकाल तक उसी लीला अनुभूति में ही मूर्छित रही ।सबह मूर्छा टूटने पर उसने देखा कि सखियाँ उसे घेर करके कीर्तन कर रही है ।उसने तानपुरा उठाया ।सखियाँ उसे सचेत हुई जानकार प्रसन्न हुई ।कीर्तन बन्द करके वे मीरा का भजन सुनने लगी --
म्हाँरा ओलगिया घर आया जी ।
तन की ताप मिटी सुख पाया ,
हिलमिल मंगल गाया जी ॥
घन की धुनि सुनि मोर मगन भया,
यूँ मेरे आनन्द छाया जी ।
मगन भई मिल प्रभु अपणा सूँ ,
भौं का दरद मिटाया जी ॥
चंद को निरख कुमुदणि फूलै ,
हरिख भई मेरी काया जी ।
रगरग सीतल भई मेरी सजनी ,
हरि मेरे महल सिधाया जी ॥
सब भक्तन का कारज कीन्हा ,
सोई प्रभु मैं पाया जी ।
मीरा बिरहणि सीतल भई ,
दुख द्वदं दूर नसाया जी ॥
म्हाँरा ओलगिया घर आयाजी ॥
इस प्रकार आनन्द ही आनन्द में अरूणोदय हो गया ।दासियाँ उठकर उसे नित्यकर्म के लिए ले चली ।
*क्रमशः ........11*
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